बांसुरी और वह

राह में  मिले कृष्णा कहीं, मुझे
अपनी  बांसुरी दे गए
कान में मेरे चुपके से
एक बात कह गए —
वह छेल छबीली पनघट पर
शिथिल , चुपचाप खड़ी है
वह जड़ है
लेकर अपना भार खड़ी है
अपने प्रिय की प्रतीक्षा में
कितनी लाचार बनी है
आँखों में, अंतर में, कुछ लिए
वह बेजार खड़ी है
– अपूर्व ! तुम उसे
यह बांसुरी दे देना
उसकी अनकही बातों को
उसके प्रिये तक पहुंचा देना

मै फिर पहुंचा पनघट पर
हाथ में बांसुरी लिए
संकुचता हुआ
ह्रदय  में संवेदना लिए
लगा जैसे एक भोली बाला
लाज में गड़ी हो
प्रेम की आग दिल में लिए
संशय में पड़ी हो
दे दूँ उसे बांसुरी
और खोल दूँ वो सब द्वार
जिन्हे वो यत्न  से, सब से छुपा, बंद किये खड़ी है
या
उसे ऐसे ही देखता रहूं
उसके मूक सुख को
मैं भी अनुभव कर जी रहूं

—- अपूर्व मोहन

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