माँ

माँ को देखता हूँ
शरीर झुक गया हैं
वो पीठ जो मुझे उठा कर पूरे घर की सैर कराती थी
आज अपने ही वजन से चार कदम में थक जाती हैं
माँ को देखता हूँ
मुझे देख आज भी
पुछती हैं, उसी प्रेम से, “बेटे भूख लगी है, कुछ बना दूँ !”
आज भी माँ को याद है, मेरी पसंद , मेरी नापसंद

बाबूजी को गये कुछ साल हो गये है
माँ दिवार पार टंगी बाबूजी की तस्वीर छुप छुप कर निहारती हैं
जैसे कह रही हो, सुनो जी बहुत दिन हो गए, अब मैं भी आना चाहती हूँ
फिर मुझको देख पलट जाती हैं
अपनी कोपी उठा ‘राम राम’ लिखने लगती हैं
माँ को देखता हूँ
वो आँखें जो मेरे आने से चमक उठती थी
मोटे चश्मे के पीछे छिप सी गयी हैं
साथ छिप गया हैं उन आँखों का सूनापन
सपने देखती हैं अब भी वो आँखें
मेरे बच्चों की शादी के, बच्चों के बच्चों के।।।
पर शरीर कहता लगता हैं, अब आराम कर लिया जाए।

मैं पास जा कर कहता हूँ,
माँ बहुत दिनो से तेरे हाथ के राजमा नहीं खायें ।
तो वो सब भूल जाती हैं


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1 thought on “माँ”

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